शोला-ए-तरब

रोने की उम्र है न सिसकने की उम्र है
जाम-ए-नशात बन के छलकने की उम्र है

शबनम की बूँद पी के चटकने की उम्र है
गुलशन में फूल बन के महकने की उम्र है

सद-मर्हबा ये गुमरही-ए-शौक़ चश्म-ओ-दिल
हाँ राह-ए-आरज़ू में भटकने की उम्र है

इक जुर्म है ख़याल-ओ-तसव्वुर गुनाह का
ये उम्र सिर्फ़ पी के बहकने की उम्र है

दीवाना बन के नज्द के सहरा में घूमिए
लैला की जुस्तुजू में भटकने की उम्र है

बेचैन क्यूँ हो रूह किसी एक के लिए
हर माह-वश पे जान छिड़कने की उम्र है

इस दौर-ए-इम्बिसात में ब-हालत-ए-जुनूँ
हर कू-ए-दिलबराँ में भटकने की उम्र है

लाज़िम नहीं कि ख़ुद को बचाता फिरूँ तमाम
शीशा हूँ चोट खा के दरकने की उम्र है

तस्कीं वो दे रही हैं पर ऐ क़ल्ब-ए-ना-सुबूर
तू और भी धड़क कि धड़कने की उम्र है

जब चल पड़ा हूँ घर से तो मंज़िल की शर्त क्या
हूँ रह-नवर्द-ए-शौक़ भटकने की उम्र है

हूँ आफ़्ताब-ए-ताज़ा हुआ हूँ अभी तुलू'अ
अपने जहान-ए-नौ में चमकने की उम्र है

ऐवान ओ तख़्त-ओ-ताज हैं मेरी लपेट में
शोला हूँ मैं ये मेरे भड़कने की उम्र है

'दौराँ' मैं बज़्म-ए-दोस्त में छेड़ूँ न क्यूँ ग़ज़ल
ये ज़मज़मे के दिन हैं लहकने की उम्र है


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