हुजूम है कि आग के पहाड़ से गिरा हुआ अलाव है कोई नहीं जो कह सके कि एक पल को ठहर कर बताओ तो कहाँ चले हो, किस तरफ़ हुजूम क्या है बे-शुमार मुंतशिर अकेले-पन की भीड़ है जो आप अपनी आहटों के डर से लड़खड़ा गई ग़ुबार-ए-नक़्श-ए-पा उठा तो जम गया ग़िलाफ़-ए-चश्म-ओ-गोश पर ये क़ाफ़िला भटक रहा है मंज़िलों को रख के अपने दोश पर नहीं किसी को होश, पर कोई तो हो जो कह सके कि ''आज़मीन-ए-बे-जिहत''! न मंज़िलें न रास्ते तो फिर ग़ुबार बन के उड़ रहे हो किस के वास्ते किसी ने कह दिया तो क्या नशेब में तो तेज़-तर हुजूम का बहाव है पहाड़ के दबाव से नशेब में कटाव है कटाव के सफ़र में कब कहाँ कोई पड़ाव है अज़ाब-ए-मुश्तइल में अब न नूह है न नाव है पता है? नहीं फ़क़त अलाव है और आग के पहाड़ से गिरा हुआ अलाव है