मैं कि इक और गुज़रते हुए पल के हमराह अपनी ख़ुशबू में बसा आप ही आप सुलगता हुआ काग़ज़ का वजूद हाथ फैला के किसी राख से अटते हुए बर्तन में मसल देता हूँ राख के ढेर पे कुछ देर को रुकता है धुआँ वो सियह-पोश वजूद मुझ से कहता है के तुम वक़्त का अंदाज़ लिए हो लेकिन वक़्त जो रोज़ न जाने कितने धीमे ख़ामोश सुलगते हुए इंसानों को ख़ाक के बार तले यूँही मसल देता है वक़्त को हाथ के फैलाने की हाजत भी नहीं