हुआ तुलूअ' सितारों की दिलकशी ले कर सुरूर आँख में नज़रों में ज़िंदगी ले कर ख़ुदी के होश उड़ाने ब-सद नियाज़ आया नए प्यालों में सहबा-ए-बे-खु़दी ले कर फ़ज़ा-ए-दहर में गाता फिरा वो प्रीत के गीत नशात-ख़ेज़-ओ-सुकूँ-रेज़ बाँसुरी ले कर जहान-ए-क़ल्ब सरापा गुदाज़ बन ही गया हर एक ज़र्रा मोहब्बत का साज़ बन ही गया जमाल-ओ-हुस्न के काफ़िर निखार से खेला रियाज़-ए-इश्क़ की रंगीं बहार से खेला पयम्बरों की कभी रस्म की अदा उस ने ग्वाला बन के कभी सब्ज़ा-ज़ार से खेला बहा दिए कभी ठोकर से प्रेम के चश्मे कभी जमन कभी गंगा की धार से खेला हँसी हँसी में वो दुख दर्द झेलता ही रहा करिश्मा-बाज़ ज़माने से खेलता ही रहा क्या ज़माने को मा'मूर अपने नग़्मों से सिखाए इश्क़ के दस्तूर अपने नग़्मों से सदाक़त और मोहब्बत की उस ने दी ता'लीम अंधेरियों में भरा नूर अपने नग़्मों से लताफ़तों से किया अर्ज़-ए-हिन्द को लबरेज़ कसाफ़तों को किया दूर अपने नग़्मों से फ़लक को याद हैं इस अहद-ए-पाक की बातें वो बाँसुरी वो मोहब्बत की साँवली रातें दिलों में रंग-ए-मोहब्बत को उस्तुवार किया सवाद-ए-हिन्द को गीता से नग़्मा-बार किया जो राज़ कोशिश-ए-नुत्क़-ओ-ज़बाँ से खुल न सका वो राज़ अपनी निगाहों से आश्कार किया उदासियों को नई ज़िंदगी अता कर दी हर एक ज़र्रे को दिल दे के बे-क़रार किया जो मशरब उस का न इस तरह आम हो जाता जहाँ से महव मोहब्बत का नाम हो जाता