मेरी मजरूह ख़ल्वत दुहाई पे उतरे भी तो किस तरह ज़हर-ए-शर शर्बत-ए-ख़ैर के ज़ाइक़े मेरे नुत्क़-ओ-ज़बाँ के लिए वक़्फ़ हैं सिर्फ़ सूद-ओ-ज़ियाँ के लिए वक़्फ़ हैं मैं तसव्वुर का मुहताज सूरत-गरी से बहलता रहूँ ज़ह्न के नीम उजालों में गिरता सँभलता रहूँ हल्क़ा-ए-रोज़-ओ-शब से मचलती हुई सारी चिंगारियाँ मुझ पे बरसा करें बहर-ए-इदराक के सब के सब जज़्र-ओ-मद मुझ पे टूटा करें मैं निगाहों में ख़ार-ए-मुग़ीलाँ लिए बस ज़मीनों ज़मीनों भटकता रहूँ अपने साए को हल्का सा नुक़्ता किए अनगिनत नीम-ख़्वाबीदा आँखों को तकता रहूँ अपनी पहचान के वास्ते अपनी तारीफ़ में सिर्फ़ इतना कहूँ मैं इकाई-गज़ीदा सर-ए-अंजुमन मेरे चारों तरफ़ बे-अमाँ इक गगन सोच बिन सोच बिन सूरज बिन