इक ज़रा सोचने दो इस ख़याबाँ में जो इस लहज़ा बयाबाँ भी नहीं कौन सी शाख़ में फूल आए थे सब से पहले कौन बे-रंग हुई रंज-ओ-तअब से पहले और अब से पहले किस घड़ी कौन से मौसम में यहाँ ख़ून का क़हत पड़ा गुल की शह-रग पे कड़ा वक़्त पड़ा सोचने दो सोचने दो इक ज़रा सोचने दो ये भरा शहर जो अब वादी-ए-वीराँ भी नहीं इस में किस वक़्त कहाँ आग लगी थी पहले इस के सफ़-बस्ता दरीचों में से किस में अव्वल ज़ह हुई सुर्ख़ शुआओं की कमाँ किस जगह जोत जगी थी पहले सोचने दो हम से उस देस का तुम नाम ओ निशाँ पूछते हो जिस की तारीख़ न जुग़राफ़िया अब याद आए और याद आए तो महबू-ए-गुज़िश्ता याद आए रू-ब-रू आने से जी घबराए हाँ मगर जैसे कोई ऐसे महबूब या महबूबा का दिल रखने को आ निकलता है कभी रात बिताने के लिए हम अब उस उम्र को आ पहुँचे हैं जब हम भी यूँही दिल से मिल आते हैं बस रस्म निभाने के लिए दिल की क्या पूछते हो सोचने दो