सवेरे सैर को जाते हुए मेरे तआ'क़ुब में परिंदों की चहक बाद-ए-सहर-गाही के हलकोरे ख़ुमार ओ ख़्वाब की सारी थकन मैं भूल जाता हूँ ख़िराम-ए-कैफ़-आवर ताल ख़ुश-रफ़्तार क़दमों की रवाँ रखती है इक अंजान मंज़िल की तरफ़ मुझ को सुहाने वक़्त की वो सुरमई धुँदली फ़ज़ा जिस में घने अश्जार शाख़ ओ बर्ग रक़्स आग़ाज़ करते हैं दरख़्तों के ज़मुर्रद रंग-ए-पैराहन की हलचल पर शफ़क़ अपना तबस्सुम जब निछावर करने आती है रुख़ गीती पे शर्माई हुई सी ताज़गी जिस दम नज़र में क़तरा-ए-शबनम की सूरत झिलमिलाती है ख़याल आता है तब मुझ को कि इस दुनिया की जन्नत में फ़लाकत और ग़ुर्बत के जहन्नम क्यूँ दहकते हैं ये हुस्न-ए-अर्ज़ के तज़ईन ओ आराइश के शैदाई ग़म-ओ-अंदोह के ग़ारों में नफ़रत के शिकंजों में ब-नाम-ए-ज़िंदगी क्यूँकि अजल की राह तकते हैं भयानक रात छा जाती है फिर मेरे तख़य्युल पर तो मेरी ज़ेहन के मशरिक़ से इक सूरज उभरता है शुआओं में पयाम-ए-जोहद की ताबिंदगी ले कर तमाज़त से यक़ीन ओ अज़्म को मामूर करता है सहर ना-आश्ना दिल गुम न कर जाती है तारीकी उमीदों आरज़ूओं की ख़बर लाती है तारीकी ख़ुमार ओ ख़्वाब की सारी थकन मैं भूल जाता हूँ