कोई शिकायत नहीं करूँगा कभी ख़ुदा से वो ज़िंदगी में हज़ार दुख दे हर एक लम्हे में रंज रख दे वजूद सारा ग़मों से भर दे हर एक सपने को चूर कर दे क़ुबूल है सब मगर वो मेरी भी इस दुआ को क़ुबूल कर ले कि मौत दे जब तो इस तरह दे कि चलते-फिरते बदन से मेरे निकाले मुझ को मैं अपने बिस्तर पे बरसों पड़ के नहीं मरूँगा किसी के काँधे पे बोझ बन कर नहीं चढ़ूँगा किसी के सीने में बन के उलझन नहीं रहूँगा किसी के एहसान मेरी मिट्टी में कैक्टस बन नहीं उगेंगे मुझे ये काँटे नहीं चुभेंगे न अपने घर और अस्पतालों के दरमियाँ मैं सफ़र करूँगा न गोलियों पर बसर करूँगा न रोज़ प्लेटों में रख के परहेज़ खा सकूँगा मिरी समाअ'त किसी के ता'ने नहीं सुनेगी न मेरे ज़ख़्मों से मक्खियों को ग़िज़ा मिलेगी कभी न ऐसी सज़ा मिलेगी किसी की ख़ुशियों के चाँद पर मैं गहन बना तो बुरा लगेगा मैं घर के कोने में ज़िंदगी भर पड़ा रहा तो बुरा लगेगा ये चाँद सूरज भी देखने को तरस गया तो बुरा लगेगा यही दुआ है ख़ुदा से बे-शक हयात मुझ को वो मुख़्तसर दे मगर मरूँ तो मिरे बदन में वो रूह ले कर सुकून भर दे मैं अपने बिस्तर पे बरसों पड़ के नहीं मरूँगा