सूरज का शहर

''नहीं ये सूरज के शहर का आदमी नहीं है
कि ये तो मरने के ब'अद फ़ुट-पाथ पर पड़ा है

ये लाश हम सब की तरह सूरज के साथ गर्दिश में क्यूँ नहीं है?
पढ़ो तो इस डाइरी में क्या है?''

नुचे-खुचे इक वरक़ पे कुछ यूँ लिखा हुआ था
''मैं अपनी दुनिया-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न तज के आज बन-बास में पड़ा हूँ

ज़रूरतों में घिरा हुआ हूँ
यहाँ तो दो और दो का हासिल हमेशा ही चार हाथ आया

कि पाँच ना-मुम्किनात में है
अज़ीम फ़नकार का क़लम हो कि कार-ख़ाने

किसी को तख़्लीक़-ए-हुस्न की आरज़ू नहीं है
मुक़द्दस आग उन के दिल की यूँ पेट के जहन्नम में जल रही है

कि ज़िंदगी की जो क़ुव्वतें हैं वो ख़ुद को ज़िंदा ही रखने में सर्फ़ हो रही हैं
मशीन की तरह ज़ेहन भी काम कर रहे हैं

रगों में जीते लहू के बदले रक़ीक़ लोहा भरा हुआ है
मशीन की तरह पाँव चलते हैं

आदमी का जलाल गर्दिश में सर-निगूँ है
इरादा व इख़्तियार इक इज़्तिराब-ए-संगीं है जिस से बच कर

कोई नहीं दो घड़ी किसी से जो बे-ग़रज़ रुक के बात कर ले
(किसे ख़बर, आदमी के दो मीठे बोल को मैं तरस गया हूँ)''

यहाँ ये तहरीर आँसुओं से मिटी हुई थी और इस से आगे
''ये शहर सूरज का शहर है इस के रोज़-ओ-शब का पता नहीं है

न आज तक वक़्त और तारीख़ का मुझे इल्म हो सका है
कि मेरे एहसास में कोई आज है न कल

और ये रात है या सियाह सूरज?
ग़ुरूब हो कर भी आसमान ओ ज़मीं से पैहम गुज़र रहा है

बस इस जहाँ में सियाह ओ रौशन हमेशा दिन है
हमेशा सूरज ही अपने सर पर खड़ा हुआ है

ये काएनात इक शिकस्ता गाड़ी है एक पहिए पे चल रही है
ज़मीन का चाँद क्या ख़बर किस अँधेरे पाताल में गिरा हो

हर एक शय भागती हुई एक दूसरे की तलाश में गुम
बस एक तसादुम

हर एक शख़्स एक दौड़ती लाश है कि इक दूसरे से वहशत-ज़दा, गुरेज़ाँ
सब अपना सूरज से मुँह छुपाए तलाश में वक़्त की हिरासाँ

किसी को इतनी भी शाम मिलती नहीं कि थोड़ा उदास हो लें''
यहाँ पे जुमले अजीब से थे लहू के धब्बों से मिट गए थे


Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close