हर रोज़ मक़ाम-ए-इंतिक़ाल पर वक़्त के तेज़-गाम घोड़े पर सवार दाएरों में दौड़ते दिन और रात गिर्ये का बे-सदा गीत गाते हैं हर रात आलम-ए-सुपुर्दगी में आ कर वो एक दूसरे से खुलने से पहले या फिर एक दूसरे में घुलने से पहले अपना अपना ग़म अपना अपना नम सुरमई हाशियों पर छोड़ जाते हैं