मिरे दादा जो ब्रिटिश फ़ौज के नामी भगोड़े थे न जाने कितनी जेलों के उन्हों ने क़ुफ़्ल तोड़े थे चरस का और गाँजे का वो कारोबार करते थे ख़ुदा से भी नहीं डरते थे बस बेगम से डरते थे मिरे ताए भी अपने वक़्त के मशहूर चीटर थे कई जेलों के तो वो हाफ-इयर्ली भी विज़ीटर थे हर इक ग़ुंडा उन्हें घर बैठे ग़ुंडा-टेक्स देता था तिजोरी तोड़ने का फ़न उन्हीं से मैं ने सीखा था चचा मरहूम नासिक जेल से जब वापस आए थे तो मशहूर-ए-ज़माना इक तवाइफ़ साथ लाए थे वो ठुमरी दादरा और भैरवीं में बात करती थी तरन्नुम में सुरय्या और लता को मात करती थी मिरे वालिद ख़ुदा बख़्शे कहीं आते न जाते थे सहर से शाम तक अमाँ के आगे दुम हिलाते थे थी इक बकरे नुमा बुर्राक़ दाढ़ी उन के चेहरे पर मगर फिर भी कबड्डी खेलते थे रात को अक्सर मैं अपने बाप दादा के ही नक़्श-ए-पा पे चलता हूँ मगर बस फ़र्क़ इतना है वो गुंडे थे मैं नेता हूँ पुलिस पीछे थी उन के थर्ड-डिग्री की ज़ियाफ़त को मिरे पीछे भी रहती है मगर मेरी हिफ़ाज़त को नहीं पर्वा कि लीडर कौन अच्छा कौन गंदा है सियासत मेरी रोज़ी है इलेक्शन मेरा धंदा है सियासत में क़दम रख कर हक़ीक़त मैं ने ये जानी चुरा कारे कुनद आक़िल कि बाज़ आयद पशेमानी