जो ज़ख़्म मैं ने तुझे दिए हैं जो ज़ख़्म तू ने मिरे ख़यालों के इन गुदाज़ आ'ज़ा पे दिए हैं वो अब फ़ज़ा में बिखर गए हैं हमारे जिस्मों की क़ैद से वो निकल गए हैं बिखर गए हैं हर एक शय में हवा में पेड़ों में बादलों में वो कोह-ओ-दरिया की चुप्पियों और शोर-ओ-ग़ुल में उतर गए हैं जिधर भी देखूँ वो ज़ख़्म चुपके चुपके रिस रहे हैं जो बाग़ में इक कली को छू लूँ तो उँगलियों पे मवाद सा कुछ दिखाई दे दे जो बादलों से टपके पानी तो बूँद में सड़ रहे लहू की महक सी आए कभी जो घबरा के कोई किताब उठा लूँ तो उस के पन्नों पे पट्टियों का गुमाँ हो जो कि अभी उतारी गई हूँ किसी के ज़ख़्म-ख़ुर्दा बदन से सुना है हम ने कि वक़्त तो एक चारा-गर है और उस की ज़म्बील में कितने नुस्ख़े कहाँ न जाने वो गुम हुआ है कि लम्हे लम्हे में किस जतन से ढूँढता हूँ कहानियों में है ज़िक्र जिस का वो तेरा मेरा वक़्त जो है तबीब-ए-आज़म