मुफ़ाहमत की हदों से आगे मुहीब अँधेरों के क़ाफ़िले हैं तवील वहशत के सिलसिले हैं जो मा'रका दिल ने सर क्या गर तो तीरगी दाइमी मुक़द्दर ख़िरद ने जीता तो क़तरा क़तरा ये ज़हर ख़ुद में उतारना है कि तीसरी कोई रह नहीं है सो मुंतज़िर हूँ कि आगे क़िस्मत में क्या लिखा है मुहीब अंधेरे कि ज़हर-ख़्वानी