कुछ कहूँ तो दम घुटता है और ख़ामोशी मुझे अंदर से काटती है ख़यालात पर लफ़्ज़ों के पहनावे पूरे नहीं आते काग़ज़ों पर दुख उतारना भी तो दुख की बात है नज़्में मुझे ख़ाली कर देती हैं ये शाइरी तो मुझे उर्यां कर देगी! मैं और कितने चेहरे पहनूँ बीनाई के जमघटे में बार बार ख़ुद से बिछड़ जाता हूँ सो मैं ने अपनी याद-दाश्त में एक तन्हाई तख़्लीक़ की ताकि उस में बैठ कर मुझे ख़ुद को दोहराने का मौक़ा मिलता रहे फ़ुर्सत ने मुझे थका दिया था शुक्र है! मैं अपने किसी काम तो आया!