ये दास्ताँ का सियह समुंदर कि जिस की मौजें मिरी सदा हैं जो मेरे अंदर अज़ल की सब ख़ामुशी समेटे अबद की हर तीरगी छुपाए धड़क रहा है वही ख़मोशी जो हर्फ़ का अस्ल ज़ाइक़ा है वही अंधेरा जो हर उजाले की इब्तिदा है ये रूह-ए-नग़्मा ये साज़-ए-हस्ती यही हक़ीक़त यही गुमाँ है इसी से मेरा वजूद मुमकिन इसी से तश्कील-ए-दो-जहाँ है मैं इस मुक़द्दस घने समुंदर से क़तरा क़तरा नए फ़साने निकालता हूँ मैं इस के गम्भीर पानियों को गुमाँ के पैकर में ढालता हूँ मगर ये सय्याल सूरतें जो मआल हैं मेरी कोशिशों का मैं इन को पहचानता नहीं हूँ कहाँ से उभरे हैं नक़्श इन के ये राज़ मैं जानता नहीं हूँ हूँ ख़ालिक़-ए-काएनात लेकिन ख़ुदा नहीं हूँ