फ़ाहिशा औरतो क्या कोई तुम में ऐसा नहीं जो मुझे इस तरह छल सके मैं नशात-ए-गुमाँ के सुरूर-ए-अजब-जावेदाँ को लिए नर्म आग़ोश से सख़्त आग़ोश तक एक बर-हक़ सफ़र करूँ फ़ाहिशा औरतो वो क़रीब-ए-मुसलसल की दौलत कहाँ से मिले क्या कोई तुम में ऐसा नहीं मुझ से जो झूट को सूँघ लेने की ख़ू छीन ले जुस्तुजू छीन ले