न जाने क्यूँ ये लग रहा है जैसे खो गया है कुछ कभी ये लग रहा है जैसे हम ने पा लिया है कुछ वो क्या है जो कि खो गया वो क्या था जिस को पा लिया ये बात मुश्तमिल है एक अर्सा-ए-अक़ील पर क़लंदर एक रू-नुमा हुआ था इक सबील पर वो पहले इल्म-ओ-फ़न की पूरी प्यास को जगाता था सवाल पूछता था और तिश्नगी बुझाता था वो कहता था कि ख़्वाब देखो जागती इन आँखों से वो हारने के क़िस्से को ही पढ़ता था पढ़ाता था वो कहता था कि जीत के ये वाक़िए पयाम ही तो देते हैं मगर शिकस्त जाने कितने रास्तों के कुछ अलग अलग निशान देती है समुंदरों की गोद में वो खेल कर जवान हुआ और अपने इल्म-ओ-फ़न से वो जहाँ पर ही छा गया हर एक मुल्क जाने कब से उस का मुंतज़िर रहा मगर वो हिन्द का सुपूत हिन्द में रहा क्या वो अपने मुल्क के तमाम बच्चों से ये कहता था कि काला रंग दाग़ हो भी सकता है कसी जगह मगर ये रंग फ़न-ए-जुस्तजू लिए चराग़ाँ है कसी जगह न जाने ऐसे कितने फ़ार्मूले वो जहाँ को है दे गया वो इल्म का नक़ीब था वो जेहल कि सलीब था वो फ़हम का रफ़ीक़ था वो मुख़्लिस-ओ-शफ़ीक़ था वो इन्फ़िरादियत का एक जाना माना नाम था वो इंजिज़ाबियत का एक ख़ुशनुमा पयाम था मगर वो शख़्स आज हम को छोड़ कर चला गया है सानेहा ये मुल्क के लिए बहुत बड़ा मगर ग़लत न होगा ऐ 'शिफ़ा' मैं बात ये कहूँ अगर कि मैं तो गुम हों बस किसी ने इस एक फ़िक्र में किसे तलाश कर के लाऊँ अब मैं अपने मुल्क से जिसे न अपने ओहदे और रुत्बे का ग़ुरूर हो जिसे न अपने इल्म का हुनर का कुछ सुरूर हो जो आए तो ख़ज़ाना-ए-उलूम ले के आए और जो जाए तो मोहब्बत-ए-अवाम ले के जाए बस भटक रहा है ज़ेहन-ओ-दिल तलाश-ए-ना-गुज़ीर को और आँख ढूँढती है बस इक ऐसे बे-नज़ीर को