तेज़ सी तलवार सादा सा क़लम बस यही दो ताक़तें हैं बेश-ओ-कम एक है जंगी शुजाअ'त का निशाँ एक है इल्मी लियाक़त का निशाँ आदमी की ज़िंदगी दोनों से है क़ौम की ताबिंदगी दोनों से है जो नहीं डरते क़लम की मार से ज़ेर करते हैं उन्हें तलवार से जब क़लम पाता नहीं कोई सबील उस घड़ी तलवार है रौशन दलील हुक्मरानी को क़लम दरकार है अम्न की ज़ामिन मगर तलवार है इल्म के मैदान में 'राज़ी' बनो जंग के मैदान में ग़ाज़ी बनो वक़्त पर मज़मून लिक्खो ज़ोर-दार वक़्त पर डट कर लड़ो मर्दाना-वार वो पढ़े लिक्खे जो बे-तलवार हैं उन की सारी डिग्रियाँ बे-कार हैं बज़्म में अशआ'र के गौहर मुफ़ीद रज़्म में तलवार के जौहर मुफ़ीद आज तक जो भी हुआ है बा-वक़ार था कोई जरनैल या मज़मूँ-निगार 'फ़ैज़' को जितना क़लम से प्यार है उतनी ही प्यारी उसे तलवार है