इस सफ़ में भी सब दुश्मन हैं उस सफ़ में भी सब दुश्मन हैं जो आँखों में आँखें डाले और दिल में नफ़रत को पाले बारूद के ढेर पे बैठे हैं बस इक साअ'त की दूरी पर उस इंसाँ की मजबूरी पर कोई रोने वाला भी तो नहीं कोई हँसने वाला भी तो नहीं उस साअ'त-ए-ख़ूँ-आशाम से थी वो सारी रौनक़ मंज़र की इस साअ'त-ए-दिल-आज़ार से है इक ज़र्द उदास सी ख़ामोशी इस मंज़र से उस मंज़र तक इक मंज़र था अब वो भी नहीं इक कटने वाली गर्दन थी इक ख़ंजर था अब वो भी नहीं अब वो भी नहीं जो देखते हों ये जीत हुई या हार हुई अब वो भी नहीं जो कहते हों ये ज़ीस्त हमें आज़ार हुई अब वो भी नहीं जो लिखते हों अहवाल जिसे तारीख़ कहें अब ये भी नहीं कि ये लाशे मिट्टी में मिलें गुलज़ार बनें अब इंसाँ खेत न हैवाँ हैं घर मदरसे दफ़्तर और न मिलें अंगुश्त की इक जुम्बिश से कहीं मीज़ाइल दाग़ा जा भी चुका इक जौहरी रक़्स के थमने तक जो दौर-ए-हयात था जा भी चुका इस ज़ीस्त के बंदी-ख़ाने से हम मिस्ल-ए-अजल आज़ाद हुए ये कैसे मुल्क बसाए थे इक लम्हे में बर्बाद हुए है आख़िरी मंज़र ताराजी हूँ जिस का एक हवाला मैं ये मंज़र कैसा मंज़र है जिसे तन्हा देखने वाला मैं अब उस सफ़ में भी कोई नहीं अब इस सफ़ में भी कोई नहीं मैं तन्हा बैठा सोचता हूँ कुछ जीने का इम्कान तो हो आ बैठे पास जो दुश्मन के दुश्मन ही सही इंसान तो हो