मुल्की हैं हम वतन है मुल्क-ए-दकन हमारा ये है ज़मीं हमारी ये है वतन हमारा तबरेज़ को भी छोड़ा ईरान को भी छोड़ा मुल्क-ए-दकन बना है अब तो वतन हमारा हम डेढ़ सौ बरस से आकर बसे हैं इस जा ये है ज़मीं हमारी चर्ख़-ए-कुहन हमारा रखते हैं जिस की उल्फ़त गाते हैं जिस का नग़्मा आक़ा-ए-बंदा-पर्वर शाह-ए-दकन हमारा सुन कर 'हया' का नग़्मा महज़ूज़ होंगे सामेअ' देता है क्या हलावत शीरीं सुख़न हमारा