भला क़त-ए-तअल्लुक़ की कोई तौजीह कैसे हो तअ'ल्लुक़ टूटने की नहज पर आ कर हमेशा टूट जाता है लब-ओ-बाम-ए-तमन्ना हाथ अक्सर छूट जाता है कभी कुछ मोड़ सीधे रास्तों को मोड़ देते हैं कभी लम्बी मसाफ़त की थकन शौक़-ए-सफ़र को माँद करती है कभी यकसानियत का ख़ौफ़ जज़्बों की लगामें खींच लेता है कभी इक राह-रौ जल्दी में होता है कभी ख़्वाहिश तो होती है मगर जज़्बा नहीं होता कभी जज़्बात होते हैं मगर ख़्वाहिश नहीं होती कभी ऐसा भी होता है तअ'ल्लुक़ से तअ'फ़्फ़ुन उठने लगता है कभी कुछ भी नहीं होता मगर फिर भी तअ'ल्लुक़ टूट जाता है भला क़त-ए-तअल्लुक़ की कोई तौजीह कैसे हो