उन के लहजे में वो कुछ लोच वो झंकार वो रस एक बे-क़स्द तरन्नुम के सिवा कुछ भी न था काँपते होंटों में उलझे हुए मुबहम फ़िक़रे वो भी अंदाज़-ए-तकल्लुम के सिवा कुछ भी न था सैकड़ों टीसें नज़र आती थीं जिस में मुझ को वो भी इक सादा तबस्सुम के सिवा कुछ भी न था सर्द ओ ताबिंदा सी पेशानी वो मचले हुए अश्क दिन में नूर-ए-माह-ओ-अंजुम के सिवा कुछ भी न था तुंद आहों के दबाने में वो सीने का उभार एक यूँही से तलातुम के सिवा कुछ भी न था मैं ने जो देखा था, जो सोचा था, जो समझा था हाए 'जज़्बी' वो तवहहुम के सिवा कुछ भी न था