फ़लक का एक तक़ाज़ा था इब्न-ए-आदम से सुलग सुलग के रहे और पलक झपक न सके तरस रहा हो फ़ज़ा का मुहीब सन्नाटा सिडौल पाँव की पायल मगर छनक न सके कली के इज़्न-ए-तबस्सुम के साथ शर्त ये है कि देर तक किसी आग़ोश में महक न सके मैं सोचता हूँ कि ये तेरी बे-हिजाब हँसी! मिज़ाज-ए-ज़ीस्त से इस दर्जा मुख़्तलिफ़ क्यूँ है ये एक शम्अ जिसे सुब्ह का यक़ीन नहीं जिगर के ज़ख़्म-ए-फ़रोज़ाँ से मुन्हरिफ़ क्यूँ है भरा हुआ है निगाहों में ज़िंदगी के धुआँ बस एक शोला-ए-शब-ताब में शरर क्यूँ है मिरे वजूद में जिस से कई ख़राशें हैं वो इक शिकन तिरे माथे पे मुख़्तसर क्यूँ है जमी हुई है सितारों पे आँसुओं की नमी तिरे चराग़ की लौ इतनी तेज़-तर क्यूँ है नए शिवाले में जा कर किसी के तेशे ने बहुत से बुत तो गिराए बहुत से बुत न गिरे बस एक ख़ंदा-ए-बे-बाक ही से क्या होगा लहू की ज़हमत-ए-इक़दाम भी ज़रूरी है ज़रा सी जुरअत-ए-इदराक ही से क्या होगा गुरेज़ ओ रजअत ओ तख़रीब ही सही लेकिन कोई तड़प, कोई हसरत, कोई मुराद तो है तिरी हँसी से तो मेरी शिकस्त है बेहतर मिरी शिकस्त में थोड़ा सा ए'तिमाद तो है