ख़्वाब कुछ बिखरे हुए से ख़्वाब हैं कुछ अधूरी ख़्वाहिशें तिश्ना-लब आवारगी के रोज़-ओ-शब एक सहरा चार सू बिखरा हुआ और क़दमों से थकन लिपटी हुई एक गहरी बे-यक़ीनी के नुक़ूश जाने कब से दो दिलों पर सब्त हैं रात है और वसवसों की यूरिशें ये अचानक ताक़ पे जलते दिए को क्या हुआ सुब्ह होने में तो ख़ासी देर है आइने और अक्स में दूरी है क्यूँ रूह प्यासी है अज़ल से दरमियाँ ताख़ीर का इक दश्त है ना-गहाँ फिर ना-गहाँ ये वही दस्तक वही आहट तो है हाँ मगर इन दूरियों मजबूरियों के दरमियाँ कौन आएगा चलो फिर भी चलें शायद उस को याद आए कोई भूली-बिसरी बात वो दरीचा बंद है तो क्या हुआ चाँद है उस बाम पर जागा हुआ