साँप का ज़हर हमारे जिस्म में दाख़िल हो कर मस्ती में नारा लगाता है ख़ून की हर बूँद में उतरते हुए लुत्फ़-ओ-इम्बिसात से नाचने लगता है हमारा बदन इस के लिए तमाम शिरयानों के दर खोल देता है मुदाफ़अत के लिए बनाए गए तमाम मोर्चे मुंहदिम हो जाते हैं चंद घंटों में सारा जिस्म ताराज हो जाता है थकन से चूर ज़हर एक नींद लेने का फ़ैसला करता है लेकिन उस की नींद जल्द ही टूट जाती है हमारे बदन का तअफ़्फ़ुन उस की बर्दाश्त से बाहर है जिस्म के अँधेरे में साँप का ज़हर ठोकरें खाता फिरता है इसे जिस्म से बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिलता वो दौड़ दौड़ कर हाँप जाता है एक मुर्दा बदन में एड़ियाँ रगड़ रगड़ कर बिल-आख़िर ख़ुद भी मर जाता है