तिरी आरज़ू जिसे मैं ने सब से अलग रक्खा उसे दिल के नर्म ग़िलाफ़ से कभी झाँकने भी नहीं दिया कि ये ख़्वाहिशों के हुजूम में कहीं अपनी क़दर गँवा न दे तिरी छोटी छोटी निशानियों को बड़े क़रीने से पोटली में लपेट कर कभी कोठरी में छुपा दिया कभी टाँड पर रखे देगचे में गिरा दिया कि परे परे रहें चश्म-ए-चर्ख़-ए-कबूद से कभी ज़ेर-ए-लब तिरा नाम भी कहीं ले लिया तो तमाम शब उसी वसवसे में गुज़र गई कि ख़मोशियों में ढला हुआ ये सुरूद-ए-ग़म किसी कम-शनास ने सुन लिया तो न बच सकेगा वक़ार-ए-हुर्मत उसी एहतियात में कट गई है मिरी हयात की दोपहर मिरे चारागर तुझे क्या ख़बर मुझे आज भी तिरी लाज का वही पहले जैसा ख़याल है न तो फ़िक्र-ए-शाम-ए-फ़िराक़ है न उमीद-ए-सुब्ह-ए-विसाल है