तुम्हारे गाँव से जो रास्ता निकलता है मैं बार बार उसी रास्ते गुज़रा हूँ हर एक ज़र्रा यहाँ का मिरी निगाह में है तुम्हारे गाँव के उस रास्ते का एक इक मोड़ खुदा हुआ है मिरे पाँव की लकीरों में हर एक मोड़ पे रुकता हुआ मैं गुज़रा हूँ कभी सुनंद की दुक्काँ पे जा के खाया पान कभी भरे हुए बाज़ार पर नज़र दौड़ाई कभी शरीफ़ के होटल पे रुक के पी ली चाय मुझे शरीफ़ से मतलब न कुछ सुनंद से काम न उस भरे हुए बाज़ार से मुझे कोई रब्त वो पूछें हाल मैं उन से कहूँ कि अच्छा हूँ वो मुझ से बढ़ती हुई क़ीमतों का ज़िक्र करें मैं उन से शहर की बे-लुत्फ़ियों की बात करूँ गुज़ारता है बस इस तरह एक दो लम्हे और इस के बाद सड़क पर क़दम बढ़ाता है तुम्हारे गाँव से जो रास्ता निकलता है मैं बार बार उसी रास्ते से गुज़रा हूँ कभी तो काम के हीले से या कभी यूँही और इन दिनों तो कोई काम सूझता भी नहीं वो दौर बीत गया मेरा काम ख़त्म हुआ रही न काम से निस्बत मुझे तुम्हारे बाद पर इक लगन जो कभी थी तुम्हारे कूचे से उसी लगन के सहारे फिर आ गया हूँ यहाँ अभी शरीफ़ के होटल पे आ के बैठा हूँ अभी सुनंद की दुक्काँ से पान खाऊँगा ज़रा सी देर यहाँ रुक के कर ही लूँगा सैर फिर अपने वक़्त पे रस्ते पे बढ़ ही जाऊँगा ये देखो बढ़ने ही वाली है जैसे गाँव की शाम ये जैसे उठने ही वाला है गाँव का बाज़ार यहाँ से वैसे ही बस मैं भी उठने वाला हूँ बिसान-ए-शाम बस अब मैं भी बढ़ ही जाऊँगा न कोई मुझ से ये पूछेगा क्यूँ मैं आया था न मैं किसी से कहूँगा कहाँ मैं जाता हूँ और एक उम्र से इस तरह जाने कितनी बार तुम्हारे गाँव के उस रास्ते से गुज़रा हूँ और अब न जाने इसी तरह और कितनी बार तुम्हारे गाँव उस इस रास्ते से गुज़रूँगा