ये शहर चाहे हज़ार सदियों की जिद्दतों का लिबास पहने यहाँ के बासी भले कोई भी ज़बान बोलें वफ़ा के मा'नी वफ़ा रहेंगे दिलों के मौसम में पत-झड़ों का सवाल कैसा ख़िज़ाँ से मोहलत न पाने वाले हवा की बातों में आने वाले लरज़ते गिरते बिखरते पत्ते जुनूँ की शाख़ों पे इश्क़ बन कर उगा करेंगे बिछड़ते रस्तो किसी के नक़्श-ए-क़दम पे लिक्खी मोहब्बतों का ख़याल करना कभी अँधेरे में धूप निकले तो चाँदनी से सवाल करना वो आदमी जो हवा से ख़ुशबू निथार लेता था अब कहाँ है धुएँ को वापस जो शो'लगी में उतार लेता था अब कहाँ है वो अपनी वहशत के बल पे ज़िंदा वफ़ा के मौसम का इक परिंदा जो दिल के पिंजरे में बे-गुनाही भुगत रहा है सुकूँ न आए तो उस से मिलना कभी मोहब्बत में ग़र्क़ हो कर वो अपनी नज़रों से देखता है दिलों को दुनिया से फ़र्क़ हो कर