तुम्हें क्या ज़िंदगी जैसी भी है तुम ने उस के हर अदा से रंग की मौजें निचोड़ी हैं तुम्हें तो टूट कर चाहा गया चेहरों के मेले में मोहब्बत की शफ़क़ बरसी तुम्हारे ख़ाल-ओ-ख़द पर आइने चमके तुम्हारी दीद से ख़ुश्बू तुम्हारे पैरहन की हर शिकन से इज़्न ले कर हर तरफ़ वहशत लुटाती थी तुम्हारे चाहने वालों के झुरमुट में सभी आँखें तुम्हारे आरिज़-ओ-लब की कनीज़ें थीं तुम्हें क्या तुम ने हर मौसम की शह-ए-रग में उंडेले ज़ाइक़े अपने तुम्हें क्या तुम ने कब सोचा कि चेहरों से अटी दुनिया में तन्हा साँस लेती हाँफती रातों के बे-घर हम-सफ़र कितनी मशक़्क़त से गरेबान-ए-सहर के चाक सीते हैं तुम्हें क्या तुम ने कब सोचा कि तन्हाई के जंगल में सियह लम्हों की चुभती किर्चियों से कौन खेला है तुम्हें क्या तुम ने कब सोचा कि चेहरों से अटी दुनिया में किस का दिल अकेला है