चाँद की नज़्र किए मैं ने नज़र के सज्दे हुस्न-ए-मासूम के जल्वों का परस्तार रहा मैं ने तारों पे निगाहों की कमंदें फेंकीं एक रंगीन हक़ीक़त का तलबगार रहा ज़ेहन के पर्दे पे रक़्साँ है कोई अक्स-ए-जमील हुस्न के रूप में शायद वो यकायक मिल जाए हर नए जल्वे से बे-साख़्ता यूँ लिपटा हूँ जैसे बिछड़ा हुआ इक दोस्त यकायक मिल जाए मैं ने अल्फ़ाज़ में रूमान के नग़्मे ढाले सई-ए-तख़्लीक़-ए-तरन्नुम से सुकूँ मिल न सका मुतमइन हो न सकीं मेरी सुलगती नज़रें हस्ब-ए-दिल-ख़्वाह मुझे ज़ौक़-ए-जुनूँ मिल न सका मेरी आशुफ़्ता-निगाही का असर छिन जाए मुझ से ऐ काश मिरा ज़ौक़-ए-नज़र छिन जाए