ज़ीस्त यूँही न रहेगी मग़्मूम ज़िंदगानी को बदलना होगा लाख आमादा-ए-साज़िश है ये शब इस शब-ए-तीरा को ढलना होगा मौत का साया लरज़ता है तो क्या वक़्त आलाम को लाया है तो क्या नामा-ए-दर्द जो आया है तो क्या ग़म को सह जाएँ दिलावर बन कर पी लें दरिया को समुंदर बन कर ग़म तो आते ही रहेंगे पैहम आते-जाते ही रहेंगे हर-दम ज़ख़्म ख़ुद पैदा करेंगे मरहम ग़म-ओ-अंदोह की कुछ बात नहीं ये कोई लम्हा-ए-हैहात नहीं अज़्म-ए-परवाज़ न देने पाए अपनी आवाज़ न देने पाए रात तारीक भी सुनसान भी है अज़्म के गीत तो गाएँ आओ शब-ए-दीजूर को रौशन तो करें शम-ए-उम्मीद जलाएँ आओ