हमारी प्यारी ज़बान उर्दू हमारी नग़्मों की जान उर्दू हसीन दिलकश जवान उर्दू ज़बान वो धुल के जिस को गंगा के जल से पाकीज़गी मिली है अवध की ठंडी हवा के झोंके से जिस के दिल की कली खिली है जो शेर-ओ-नग़्मा के ख़ुल्द-ज़ारों में आज कोयल सी कूकती है इसी ज़बाँ में हमारे बचपन ने माओं से लोरियाँ सुनी हैं जवान हो कर इसी ज़बाँ में कहानियाँ इश्क़ ने कही हैं इसी ज़बाँ को चमकते हीरों से इल्म की झोलियाँ भरी हैं इसी ज़बाँ से वतन के होंटों ने नारा-ए-इन्क़िलाब पाया इसी से अंग्रेज़ हुक्मरानों ने ख़ुद-सरी का जवाब पाया इसी से मेरी जवाँ तमन्ना ने शायरी का रबाब पाया ये अपने नग़्मात-ए-पुर-असर से दिलों को बेदार कर चुकी है ये अपने नारों की फ़ौज से दुश्मनों पे यलग़ार कर चुकी है सितमगरों की सितमगरी पर हज़ार-हा वार कर चुकी है कोई बताओ वो कौन सा मोड़ है जहाँ हम झिजक गए हैं वो कौन सी रज़्म-गाह है जिस में अहल-ए-उर्दू दुबक गए हैं वो हम नहीं हैं जो बढ़ के मैदाँ में आए हों और ठिठक गए हैं ये वो ज़बाँ है कि जिस ने ज़िंदाँ की तीरगी में दिए जलाए ये वो ज़बाँ है कि जिस के शो'लों से जल गए फाँसीयों के साए फ़राज़-ए-दार-ओ-रसन से भी हम ने सरफ़रोशी के गीत गाए कहा है किस ने हम अपने पियारे वतन में भी बे-वतन रहेंगे ज़बान छिन जाएगी हमारे दहन से हम बे-सुख़न रहेंगे हम आज भी कल की तरह दिल के सितार पर नग़्मा-ज़न रहेंगे ये कैसी बाद-ए-बहार है जिस में शाख़-ए-उर्दू न फल सकेगी वो कैसा रू-ए-निगार होगा न ज़ुल्फ़ जिस पर मचल सकेगी हमें वो आज़ादी चाहिए जिस में दिल की मीना उबल सकेगी हमें ये हक़ है हम अपनी ख़ाक-ए-वतन में अपना चमन सजाएँ हमारी है शाख़-ए-गुल तो फिर क्यूँ न उस पे हम आशियाँ बनाएँ हम अपने अंदाज़ और अपनी ज़बाँ में अपने गीत गाएँ कहाँ हो मतवालो आओ बज़्म-ए-वतन में है इम्तिहाँ हमारा ज़बान की ज़िंदगी से वाबस्ता आज सूद ओ ज़ियाँ हमारा हमारी उर्दू रहेगी बाक़ी अगर है हिन्दोस्ताँ हमारा चले हैं गंग-ओ-जमन की वादी में हम हवा-ए-बहार बन कर हिमालिया से उतर रहे हैं तराना-ए-आबशार बन कर रवाँ हैं हिन्दोस्ताँ की रग रग में ख़ून की सुर्ख़ धार बन कर हमारी प्यारी ज़बान उर्दू हमारी नग़्मों की जान उर्दू हसीन, दिलकश जवान उर्दू