अपनी तहज़ीब है और अपनी ज़बाँ है उर्दू अपने घर में मगर अफ़सोस कहाँ है उर्दू अहल-ए-उल्फ़त के लिए हुस्न-ए-रवाँ है उर्दू अहल-ए-दिल के लिए दिलकश है जवाँ है उर्दू आज भी 'ग़ालिब' ओ 'इक़बाल' पढ़े जाते हैं आज भी कल की तरह जादू-बयाँ है उर्दू आज भी 'प्रेम' के और 'कृष्ण' के अफ़्साने हैं आज भी वक़्त की जमहूरी ज़बाँ है उर्दू आज भी मुल्क की अज़्मत के हैं नग़्मे इस में आज भी क़ौम की हुर्मत का बयाँ है उर्दू आज भी बज़्म की रौनक़ है 'अता' इस के सबब महफ़िल-ए-शेर की इस वक़्त भी जाँ है उर्दू