बारहा ज़िंदगी कोई मौसम कोई रुत यहाँ कुछ नहीं दूर तक ख़ाक उड़ती है सन्नाटा है वो जो उस मोड़ पर हम ने इक दिन किया चाह कर भी भुला न सके आज तक झूट सच ख़ैर शर बद भला क्या था वो तुम मिलो जो कभी बैठ के तय करें बस ज़रा सोच लें तुम भी आते हो अक्सर यहाँ सुनता हूँ