तन्हाई के जूते पहने हम सेकेंड-हैंड क़ब्रों में रह रहे हैं हमें अकेले-पन की मशीनों में डाल कर सिखाया जा रहा है कि मौत से जंग हो जाए तो कमर पर गोली खा कर मैदान से भागना नहीं है हमारे सीने परचम की तरह लहरा रहे हैं बरसात का मौसम नहीं मगर मौत पूरी शिद्दतों के साथ तमाम शहरों पर बरस रही है हम अपनी अपनी क़ब्रों में पड़े सोचते हैं ज़िंदगी की रियाज़ी में फ़क़त नफ़ी की मश्क़ें क्यों होती हैं हमारी आँखें दिन भर दीवारों पर सिर्फ़ जनाज़ा-गाहें पेंट करती रहती हैं अगरचे हमारे साथ किसी की आँखें नहीं जाएँगी न कोई मुस्कुराहट न अलविदाई बोसा कोई कर्फ़्यू जैसी मौत भी मरता है आज से पहले ये सवाल कहीं पैदा नहीं हुआ था हम सिर्फ़ अपनी आँखों से ज़िंदा रह कर अपने आप को बातों में लगाए हुए हैं जाने कब ये राब्ता मुंक़ता' हो और हम सेकेंड-हैंड क़ब्रों से प्लास्टिक के थैलों में मुंतक़िल हो जाएँ