रात जागी तो कहीं सहन में सूखे पत्ते चरमराए कि कोई आया कोई आया है और हम शौक़ के मारे हुए दौड़े आए गो कि मालूम है तू है न तिरा साया है हम कि देखें कभी दालान कभी सूखा चमन उस पे धीमी सी तमन्ना कि पुकारे जाएँ फिर से इक बार तिरी ख़्वाब सी आँखें देखें फिर तिरे हिज्र के हाथों ही भले मारे जाएँ हम तुझे अपनी सदाओं में बसाने वाले इतना चीख़ें कि तिरे वहम लिपट कर रोएँ पर तिरे वहम भी तेरी ही तरह क़ातिल हैं सो वही दर्द है जानाँ कहो कैसे सोएँ बस इसी कर्ब के पहलू में गुज़ारे हैं पहर बस यूँही ग़म कभी काफ़ी कभी थोड़े आए फिर अचानक किसी लम्हे में जो चटख़े पत्ते हम वही शौक़ के मारे हुए दौड़े आए