सुनो तुम्हारा जुर्म तुम्हारी कमज़ोरी है अपने जुर्म पे रंग-बिरंगे लफ़्ज़ों की बे-जान रिदाएँ मत डालो सुनो तुम्हारे ख़्वाब तुम्हारा जुर्म नहीं हैं तुम ख़्वाबों की ताबीर से डर कर लफ़्ज़ों की तारीक गुफा में छुप रहने के मुजरिम हो तुम ने हवाओं के ज़ीने पर पाँव रख कर क़ौस-ए-क़ुज़ह के रंग समेटे और ख़लाओं में उड़ते फ़र्ज़ी तारों सय्यारों की बातें कीं तुम मुजरिम हो उस नन्ही कोंपल के जिस ने सुब्ह की पहली शोख़ किरन से सरगोशी की तुम मुजरिम हो उस आँगन के जिस में शायद अब भी तुम्हारे बचपन की मासूम शरारत ज़िंदा है तुम मुजरिम हो तुम ने अपने पाँव से लिपटी मिट्टी को एक इज़ाफ़ी चीज़ समझ कर झाड़ दिया