ख़ामोश है गुंग है सियह-पोश माज़ी के महल की कोहना दीवार टूटा नहीं बे-हिसी का पिंदार छोड़ा था उसी महल के पीछे अहबाब को सिर्फ़ नग़्मा-ओ-साज़ रखते थे शरारतों की बुनियाद होता था मोहब्बतों का आग़ाज़ लौटा हूँ तो महफ़िलें हैं ख़ामोश आती नहीं क़हक़हों की आवाज़ ज़िंदाँ की हदों में खो गए हैं दीवाने बहल के सो गए हैं दरवाज़ों पे दे रहा हूँ आवाज़ ख़ामोश है गुंग है सियह-पोश माज़ी के महल की कोहना दीवार फैलाए हुए ज़मीं है आग़ोश तारीकी में ढूँढता हूँ राहें सूरज को तरस गईं निगाहें