जवाँ रातों में काला दश्त क़ालिब में उतरता है कि मेरे जिस्म ओ जाँ के मर्ग़-ज़ारों की महक हवा के दोश पर रक़्स करती है प्यासी रेत सहराओं की धँसती है रग ओ पय में उधड़ते हैं मसामों से लहू-ज़ारों के चश्मे बर्फ़ कोहसार के सारे परिंदे गीत गाते हैं हबाब उठता है गहरे नील-गूँ ज़िंदा समुंदर का हिमाला साँस में ढल कर ग्लेशियर सा पिघलता है जवाँ रातें रेगज़ारों की प्यासी रेत समुंदर का हबाब बर्फ़ कोहसार के सारे परिंदे हिमाला और ग्लेशियर जवाँ रातों में मेरी काएनातों में नए सय्यारे और ताज़ा जहाँ दरयाफ़्त करते हैं कि मुझ पर लफ़्ज़ बारिश से उतरते हैं