हमारी दास्तानों में तुम्हारी दास्तानें मिल ही जाती हैं हमें सब याद है वो एक इक मंज़र जिसे इन मौसमों ने रागनी होना सिखाया था जिन्हें हम दूर की वादी में पीछे छोड़ आए थे मगर इक आरज़ू बन कर वही वादी वही मंज़र तआ'क़ुब में है ख़्वाबों में महकते राज़ अफ़्शाँ हैं पिघलती बर्फ़ के अंदर चनाबें टूटने की मुंतज़िर हैं अब भी सहरा में हवाएँ गुनगुनाती हैं वो पावन राग मद्धम से यही पंजाब की धरती जहाँ इक हीर और राँझे का वारिस मैं तन-ए-तन्हा फ़क़त मैं