अजीब वो सैल था कि जिस ने कनार-ए-दरिया की सरहदों में नए इज़ाफ़े किए हैं ताज़ा ज़मीन आबाद कर गया है अजीब वो धूप थी जो पेश-अज़-सहर की साअत के घर में उतरी तो जैसे सोए हुए लबों पर निशान-ए-उल्फ़त लगा गई है अजीब लम्हा था जिस ने सर पर चमकते सूरज के गर्म रस्ते पे पा-बरहना सफ़र किया है वो धूप तेरे जमाल की थी वो सैल मेरे ख़याल का था वो लम्हा तेरे विसाल का था