इक अजब आग सी है सीने में जैसे हो सीना-ए-शमशीर की आग इक अजब आग सी है बातिन में जैसे हो नाला-ए-शबगीर की आग जैसे इक शोला-ए-जव्वाला फ़लक को छू ले सीना-ए-सर्द में मेरे है वही आग अभी तोदा-ए-बर्फ़ से जो बुझ न सके बन के शोला ये बढ़ी जाती है सू-ए-अफ़्लाक उठी जाती है उस की ज़द में हैं ये अश्या-ए-निज़ाम-ए-आलम बस कि इक ख़ौफ़ है पहलू में मिरे अपनी ही आग से अफ़्कार न जल जाएँ कहीं सोचता हूँ कि दुआ ही माँगूँ मेरे आतिश-कदा-ए-सीना को मेरा रब लुत्फ़-ओ-करम का कोई चश्मा कर दे