हमारे आज़ा जो आसमाँ की तरफ़ दुआ के लिए उठे हैं (तुम आसमाँ की तरफ़ न देखो!) मक़ाम-ए-नाज़ुक पे ज़र्ब-ए-कारी से जाँ बचाने का है वसीला कि अपनी महरूमियों से छुपने का एक हीला? बुज़ुर्ग-ओ-बरतर ख़ुदा कभी तो (बहिश्त-ए-बर-हक़) हमें ख़ुदा से नजात देगा कि हम हैं इस सरज़मीं पे जैसे वो हर्फ़-ए-तन्हा (मगर वो ऐसा जहाँ न होगा) ख़मोश ओ गोया जो आरज़ू-ए-विसाल-ए-मअ'नी में जी रहा हो जो हर्फ़-ए-मअ'नी की यक-दिली को तरस गया हो हमें मुअर्रा के ख़्वाब दे दो (कि सब को बख़्शें ब-क़द्र-ए-ज़ौक़-ए-निगह तबस्सुम) हमें मुअर्रा की रूह का इज़्तिराब दे दो (जहाँ गुनाहों के हौसले से मिले तक़द्दुस के दुख का मरहम) कि उस की बे-नूर-ओ-तार आँखें दरून-ए-आदम की तीरा रातों को छेदती थीं उसी जहाँ में फ़िराक़-ए-जाँ-काह-ए-हर्फ़-ओ-मअ'नी को देखती थीं बहिश्त उस के लिए वो मासूम सादा-लौहों की आफ़ियत था जहाँ वो नंगे बदन पे जाबिर के ताज़ियानों से बच के राह-ए-फ़रार पाएँ वो कफ़्श-ए-पा था कि जिस से ग़ुर्बत की रेग-ए-बर्याँ से रोज़-ए-फ़ुर्सत क़रार पाएँ कि सुल्ब-ए-आदम की रहम-ए-हव्वा की उज़लतों में निहायत-ए-इंतिज़ार पाएँ! (बहिश्त सिफ़्र-ए-आज़ीम लेकिन हमें वो गुम-गश्ता हिन्दसे हैं बग़ैर जिन के कोई मुसावात क्या बनेगी विसाल-ए-मअ'नी से हर्फ़ की बात क्या बनेगी?) हम इस ज़मीं पर अज़ल से पीराना-सर हैं माना मगर अभी तक हैं दिल तवाना और अपनी ज़ूलीदा-कारियों के तुफ़ैल दाना हमें मुअर्रा के ख़्वाब दे दो (बहिश्त में भी नशात यक-रंग हो तो ग़म है हो एक सा जाम-ए-शहद सब के लिए तो सम है) कि हम अभी तक हैं इस जहाँ में वो हर्फ़-ए-तन्हा (बहिश्त रख लो हमें ख़ुद अपना जवाब दे दो!) जिसे तमन्ना-ए-वस्ल-ए-म'अना