ये तो सदियों का क़िस्सा था यहाँ तो एक बड़ा सा पेड़ हुआ करता था जलती, तपती, भुनती और सुलगती रुत में इस के नीचे यहीं कहीं पर एक जज़ीरा सा आबाद रहा करता था ख़ुनुक-ख़ुनुक साए में हँसते गाते, मुस्काते लोगों की इक बस्ती थी यहाँ तो एक बड़ा सा पेड़ हुआ करता था यही धूप जो आज यहाँ पर चीख़ रही है पल भर सुस्ता लेने को तरसा करती थी ये तो सदियों का क़िस्सा था यहाँ तो एक बड़ा सा पेड़ हुआ करता था