वो एब्नॉर्मल नहीं था सिर्फ़ उस को नॉर्मल बनने की हसरत थी कई ख़ानों में उस की ज़िंदगी बटने लगी थी वो अपनी कोशिश-ए-ना-मो'तबर से तंग आ कर नीम-जाँ हो कर एक ख़ाने में पनह लेने लगा था बनी आमाज-गाह-ए-तीर-ए-नफ़रत शख़्सियत उस की उसे भी ख़ुद से नफ़रत हो चुकी थी मगर इस नफ़रत-ए-मानूस की तकरार से उस ने दुरुश्त ओ ना-मुवाफ़िक़ ज़िंदगी से सुल्ह कर ली थी यही था कीसा-ए-अख़्लाक़ उस का ग़रीबी ने शराफ़त छीन ली थी और उस की शख़्सियत के पैरहन में गुहर-बारों के बदले संग-रेज़े जड़ दिए थे वो एब्नॉर्मल नहीं था मगर अब उस में ख़ुद को नॉर्मल करने का यारा भी नहीं था उसे अब ये गवारा भी नहीं था गली-कूचों की सारी गंदगी का तीरगी का वो अब हक़दार वारिस बन चुका था