ज़िंदगी के सियाह कमरे में बीती यादों के चंद जुगनू हैं जो मुसलसल तसल्लियाँ दे कर मुझ को समझा रहे हैं बरसों से सिर्फ़ पाना ही शर्त इश्क़ नहीं इश्क़ तो वो अज़ीम मरकज़ है जिस में हर शय से प्यार होता है जिस में खोना भी इक इबादत है और जब जब ये बात सुन कर के मैं ज़रा भी उदास होता हूँ तो मिरी कोठरी का हर कोना टिकटिकी सा लगाए देखे है गोया मुझ से वो कह रहा हो ये याद-ए-माज़ी अज़ाब है लेकिन वक़्त-ए-तन्हाई याद के जुगनू तुझ को ये रौशनाई देते हैं मस्लहत ये ही दर-हक़ीक़त है जो भी है रब की बस इनायत है मैं भी कुछ मुत्तफ़िक़ हूँ अब उन से वक़्त-ए-तन्हा सियाह कमरे में याद-ए-माज़ी की रौशनी के सबब मैं ये तन्हाई झेल सकता हूँ अपने अश्कों से खेल सकता हूँ और उन सब तमाम बातों से अब नतीजा यही निकलता है याद-ए-माज़ी भले अज़ाब सही याद-ए-माज़ी ख़ुदा की रहमत है