इंतिज़ार सौंपा है तुम ने न कोई हर्फ़-ए-दिलदारी कि जिस को दोहराते हुए सभी फीके से दिन कासनी बेलों से ढक जाएँ न कोई लम्स की उतरन कि जिस को ओढ़ के मैं शाम के पहलू में बैठी तुम्हारे वस्ल के कुछ ख़्वाब ही काढ़ूँ न कोई बोसा-ए-उम्मीद मेरे माथे पे महका कि जिस की लौ में मेरी नज़्में रात भर रक़्स करती हों तुम्हें याद करती हों मिरे महबूब कैसा राएगाँ सा इंतिज़ार सौंपा है मेरी उड़ान से रहते हैं ख़ाइफ़ जो मेरे पर कतर के शादमाँ हैं मिरी सीने में हैं सातों समुंदर मिरी आँखों में सातों आसमाँ हैं