ये कुंद और यख़ बे-नुमू नींद जिस में शब-ए-इर्तिक़ा और सुब्ह-ए-हरीरा का ताज़ा अमल राएगाँ हो रहा है शिकस्ता किनारों के अंदर मचलती हुई सोख़्ता-जान लहरों का रक़्स-ए-ज़ियाँ हो रहा है चराग़-ए-तहर्रुक कफ़-ए-सुस्त पर बे-निशाँ हो रहा है मिरे दहर का ताक़-ए-तहज़ीब जिस पर मुक़द्दस सहीफ़ा नहीं इक रिया-कार मशअ'ल धरी है हर इक शीशा-ए-पाक-बाज़-ओ-सफ़ा की समावी रगों में किसी अक्स-ए-फ़ाजिर की मिट्टी भरी है मुनज़्ज़ह दरख़्तों के पाक और शीरीं फलों में कोई नोक-ए-तेग़-ए-नजासत गड़ी है ख़ुदाया तिरे नेक बंदों पर उफ़्ताद कैसी पड़ी है ये कैसी घड़ी है