ठहर गई आसमाँ की नदिया वो जा लगी है उफ़क़ किनारे उदास रंगों की चाँद नय्या उतर गए साहिल-ए-ज़मीं पर सभी खवय्या तमाम तारे उखड़ गई साँस पत्तियों की चली गईं ऊँघ में हवाएँ गजर बजा हुक्म-ए-ख़ामुशी का तो चुप में गुम हो गईं सदाएँ सहर की गोरी की छातियों से ढलक गई तीरगी की चादर और इस बजाए बिखर गए उस के तन-बदन पर निरास तन्हाइयों के साए और उस को कुछ भी ख़बर नहीं है किसी को कुछ भी ख़बर नहीं है किसी को कुछ भी ख़बर नहीं है कि दिन ढले शहर से निकल कर किधर को जाने का रुख़ किया था न कोई जादा, न कोई मंज़िल किसी मुसाफ़िर को अब दिमाग़-ए-सफ़र नहीं है ये वक़्त ज़ंजीर-ए-रोज़-ओ-शब की कहीं से टोटी हुई कड़ी है ये मातम-ए-वक़्त की घड़ी है ये वक़्त आए तो बे-इरादा कभी कभी मैं भी देखता हूँ उतार कर ज़ात का लबादा कहीं सियाही मलामतों की कहें पे गुल-बूटे उल्फ़तों के कहें लकीरें हैं आँसुओं की कहें पे ख़ून-ए-जिगर के धब्बे ये चाक है पंजा-ए-अदू का ये मोहर है यार-ए-मेहरबाँ की ये लअ'ल लब-हा-ए-मह-विशाँ के ये मर्हमत शैख़-ए-बद-ज़बाँ की ये जामा-ए-रोज़-ओ-शब-गज़ीदा मुझे ये पैराहन-ए-दरीदा अज़ीज़ भी, ना-पसंद भी है कभी ये फ़रमान-ए-जोश-ए-वहशत कि नोच कर इस को फेंक डालो कभी ये इसरार-ए-हर्फ़-ए-उल्फ़त कि चूम कर फिर गले लगा लो