सोचती हूँ जलते बुझते खे़मे थे तिश्नगी की शिद्दत से छोटे छोटे बच्चों के बंद होती आँखें थीं अश्क़िया का नर्ग़ा था फ़त्ह के नक़्क़ारे थे बे-हया इशारे थे बीबियों के बैनों में शाम के धुँदलके में सज्दा-गह पे सर रख कर आबिदों की ज़ीनत ने हम्द जब किया होगा अर्श हिल गया होगा सज्दा रो पड़ा होगा सज्दा रो पड़ा होगा